प्रतिबिंब
रोज मैं ईश्वर से बात करती हूं,
नापती हूं उन तमाम गिरहों को,
उन तमाम दायरों को,
जो ईश्वर ने तो बनाए होंगे,
इस सृष्टि को जगमग करने को,
धीरे धीरे खोलती हूं उन गिरहों को,
कहीं धूमिल न हो जाए प्रभु की सृष्टि ,
रोज़ मैं ईश्वर से बात करती हूं,
नापती हूं उन तमाम गिरहों को ।
पर क्या करूं पगडंडियों
में पत्थर ही पत्थर हैं।
फूलों से भरे रास्ते ही न थे।
इसलिए ही तो ईश्वर ने,
कुछ लोगों को ही दिया,
वो साहस व धैर्य,
रास्ते सहज न चुनना
क्यों की मैं तो तेरे साथ हूं
मैं तो तेरे पास हूं।
रोज़ मैं ईश्वर से बात करती हूं,
नापती हूं उन तमाम गिरहों को ।
जब अल्लाह, प्रभु मेरे पास है।
तो नियती से क्या डरना?
कठिनाइयों की क्या बिसात?
आसमान भी अपना
ये धरती भी अपनी
रोज़ मैं ईश्वर से बात करती हूं,
नापती हूं उन तमाम गिरहों को।
ASHA SHARMA
WRITER
HYDERABAD....
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